Here we are providing a short note on VOTE (Voting in India). Must read and Share
मतदान क्यों अनिवार्य हो ?
देश में काफी समय से अनिवार्य मतदान की मांग उठती रही है, लेकिन देश के राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी इस व्यवस्था के बारे में एक मत नहीं हैं। विशेषज्ञों का एक धड़ा जहां मतदान को मौलिक जिम्मेदारी में जोड़ने और उल्लंघन करने पर जुर्माने की बात करता है, तो दूसरा इसे लोकतंत्र के लिए व्यवहारिक नहीं मानता है। विशेषज्ञों के अनुसार अनिवार्य मतदान को लागू करने के पीछे क्या हैं मुश्किलें और इसका कितना होगा फायदा, इसी पर केंद्रित है आज का स्पॉट लाइट…
लोकतंत्र को मिलेगी मजबूती
देश में अनिवार्य मतदान भारतीय लोकतंत्र में नई जान फूंक सकता है। दुनिया के 32 से अधिक देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था है। यह व्यवस्था अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में लागू हो गई तो उसकी बात ही कुछ और होगी। यदि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदान करना अनिवार्य हो गया तो अमरीका और ब्रिटेन जैसे पुराने और सशक्त लोकतंत्रों को भी भारत का अनुसरण करना पड़ सकता है, हालांकि भारत और उनकी समस्या एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। भारत में अमीर लोग वोट नहीं डालते और इन देशों में गरीब लोग वोट नहीं डालते।
बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं
भारत इस तथ्य पर गर्व कर सकता है कि जितने मतदाता भारत में हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हैं और लगभग हर साल भारत में कोई न कोई ऎसा चुनाव अवश्य होता है, जिसमें करोड़ों लोग वोट डालते हैं। लेकिन अगर हम थोड़ा गहरे उतरें तो हमें निराशा भी हो सकती है। आजादी के बाद से हमारे यहां एक भी सरकार ऎसी नहीं बनी, जिसे कभी 50 प्रतिशत वोट मिले हों। आज भारत में कुल मतदाताओं की संख्या 80 करोड़ के पार जा पहुंची है। मान लिया 80 करोड़ में से 50 करोड़ ने वोट डाले। यदि किसी पार्टी को 50 में से 10-12 करोड़ वोट मिल गए तो भी वह सरकार बना लेती है। दूसरे शब्दों में 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में सिर्फ 10-12 करोड़ लोगों के समर्थनवाली सरकार क्या वास्तव में लोकतांत्रिक सरकार है? क्या वह वैध सरकार है ? क्या वह बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है? आज तक हम ऎसी सरकारों के आधीन ही रहे हैं।
मतदान केंद्र पर हाजिरी जरूरी
देश के प्रत्येक वयस्क को बाध्य किया जाना चाहिए कि वह देशहित में मतदान करे। बाध्यता का अर्थ यह नहीं है कि वह इस या उस उम्मीदवार को वोट दे ही। अगर वह सारे उम्मीदवारों को अयोग्य समझता है तो किसी को वोट न दे। परिवर्जन (एब्सटेन) करे, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्य-राष्ट्र करते हैं। दूसरे शब्दों में यह वोट देने की बाध्यता नहीं है बल्कि मतदान केंद्र पर जाकर अपनी हाजिरी लगाने की बाध्यता है। यह बताने की बाध्यता है कि इस भारत के मालिक आप हैं और आप जागे हुए हैं। आप सो नहीं रहे हैं। आप धोखा नहीं खा रहे हैं। आप यह नहीं कह रहे हैं कि “को नृप होई, हमें का हानि।” यदि आप वोट देने नहीं जाते हैं, तो माना जाएगा कि आप यही कह रहे हैं और ऎसा कहना लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाना नहीं तो क्या है?
बदलेगी तस्वीर
यदि भारत में मतदान अनिवार्य हो जाए तो चुनावी भ्रष्टाचार बहुत घट जाएगा। वोटरों को मतदान-केंद्र तक ठेलने में अरबों रूपया खर्च होता है, शराब की नदियां बहती हैं, जात और मजहब की ओट ली जाती है तथा अनेक अवैध हथकंडे अपनाए जाते हैं। इन सबसे मुक्ति मिलेगी। लोगों में जागरूकता बढ़ेगी। वोट-बैंक की राजनीति भी थोड़ी पतली पड़ेगी। जो लोग अपने मतदान-केंद्र से काफी दूर होंगे, वे डाक या इंटरनेट या मोबाइल फोन से वोट कर सकते हैं। जो लोग बीमारी, दुर्घटना या किसी अन्य अपरिहार्य कारण से वोट नहीं डाल पाएंगे, उन्हें कानूनी सुविधा अवश्य मिलेगी। जिस दिन भारत के 90 प्रतिशत से अधिक नागरिक वोट डालने लगेंगे, जागरूकता इतनी बढ़ जाएगी कि लोग जनमत-संग्रह, जन-प्रतिनिधियों की वापसी और सुनिश्चित अवधि की विधायिका और कार्यपालिका की मांग भी मनवा कर रहेंगे।
अनिवार्य मतदान के विष्ाय में संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है। अनुच्छेद 326 में कुछ शर्तो के अधीन मतदाता के रूप मेे नाम पंजीकृत किए जाने के अधिकार का प्रावधान है लेकिन मतदान करने की बाध्यता के बारे में कोई व्यवस्था नहीं है। अत: देश में मतदान अनिवार्य किए जाने का कानून संविधान सम्मत नहीं होगा। भारत में इस तरह का कोई भी कानून बनाने से पहले मूल कर्तव्यों से संबंधित संविधान के भाग चार ए के अनुच्छेद 51 ए में व्यवस्था करनी होगी।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 62 में केवल मतदान के अधिकार का प्रावधान है। अत: इसके लिए संविधान संशोधन के उपरांत अधिनियम में प्रावधान करना होगा। वर्तमान समय में देश में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था न तो आवश्यक है और न यह उचित और व्यवहारिक होगी। इस व्यवस्था को लागू करने का परिणाम यह होगा कि मत देने वालों की संख्या वर्तमान संख्या की दोगुनी से भी अधिक हो जाएगी और इनके लिए मतदान की व्यवस्था करना गंभीर चुनौती होगी।
इसके साथ ही मतदान न करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करना भी अपने आप में एक बड़ा काम होगा, जिसके लिए शासकीय मशीनरी के समय तथा धन का अनावश्यक अपव्यय होगा। वर्तमान में प्रचलित “फर्स्ट पास्ट द पोस्ट” निर्वाचन प्रणाली की बजाय उम्मीदवार के लिए कुल पड़े मतों का 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त होना आवश्यक हो। अधिकांश सांसद/विधायक कुल मतदाताओं का केवल 25 प्रतिशत मत प्राप्त करके भी निर्वाचित घोषित हो जाते हैं। प्रस्तावित व्यवस्था से मतदान का प्रतिशत स्वत: बढ़ जाएगा, क्योंकि निर्वाचित घोषित होने के लिए राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों को और अधिक मत प्राप्त करने का प्रयास करना होगा। इससे मतदाताओं की संख्या भी बढेगी।
आजकल चुनावी गरमा-गर्मी के माहौल में यह बहस छेड़ी जा रही है कि क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदान के बुनियादी अधिकार को अधिकार ही नहीं बल्कि एक कर्तव्य भी बना देना चाहिए? चुनाव आयोग ने पहली बार मतदाता के सामने यह विकल्प रखा है कि वह उपलब्ध उम्मीदवारों में यदि किसी को भी चुनना नहीं चाहता है, तो वह कोई भी नहीं वाले विकल्प का बटन दबा सकता है। फिलहाल इस बारे में अटकलबाजी तेज है कि कितने लोग इस विकल्प को चुनेंगे? यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में अधिकांश मतदाताओं ने यही फैसला किया और दोबारा आयोजित चुनावों में भी वही उम्मीदवार फिर से सामने प्रकट हो गए तब मतदाता के सामने क्या चारा रह जाएगा? इसके अलावा जिन निर्वाचन क्षेत्रों में हार-जीत का फैसला बहुत कम मतों के अंतर से होने का अनुमान है वहंा इस विकल्प से कितना असर पड़ेगा?
मतदान को अनिवार्य-कर्तव्य बनाने के पक्ष में दिए जाने वाला तर्क स्पष्ट है। आज जो प्रणाली लागू है उसके अन्तर्गत कुल पड़े मतों का बहुमत पाने वाला प्रत्याशी विजयी घोषित होता है। इसे अंग्रेजी में “फर्स्ट पास्ट द पोस्ट” व्यवस्था कहा जाता है। ज्यादातर यह होता है कि कुल पंजीकृत मतदाताओं का बहुसंख्यक हिस्सा मतदान में भाग नहीं लेता। हालांकि हाल के चुनावों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ मतदान का प्रतिशत लगभग हर जगह बढ़ता गया है और कई जगह 60 से 70 प्रतिशत तक मतदान होने लगा है। ऎसी स्थिति में कुल मतदाताओं के आधे से कम के मतदान में बहुमत प्राप्त करने वाला विजयी उम्मीदवार अक्सर कुल मतों के चौथाई प्रतिशत से कम में भी जीतता रहा है और चुनावी नतीजे जनतंत्र का मखौल बन कर रह जाते हैं।
कई देशों ने कानून वापस लिया
दुनिया के जिन देशों में मतदान अनिवार्य है उनमें अर्जेन्टीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, सिंगापुर और पेरू प्रमुख हैं। इन देशों में 18 साल से लेकर 70 साल की उम्र के हर नागरिक के लिए मतदान अनिवार्य है। इनके अलावा लक्जमबर्ग, नाउरू, कांगो का जनतांत्रिक गणराज्य तथा इक्वेडोर और उरूग्वे भी इस सूची में शामिल है। स्विटजरलैण्ड के सिर्फ एक कैन्टन मेें मतदान अनिवार्य है। इस सूची पर नजर डालते ही यह बात पता चल जाती है कि सिर्फ ऑस्ट्रेलिया ही एक अकेला ऎसा देश है जिसे वयस्क जनतंत्र कहा जा सकता है। बाकी सब तो अत्यंत सूक्ष्म राज्य हैं।
वे औपनिवेशिक दौर से आज तक क्रांतिकारी फौजी तानाशाहों के द्वारा शासित होते रहे हैं। सिंगापुर एक अनूठा देश है जो प्राचीन यूनानी नगर राज्यों की याद दिलाता है और जिसकी तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। इन देशों के अलावा कुछ और देशों ने अनिवार्य मतदान को कानूनन लागू तो किया है पर इस कानून का पालन न करने वालों को सजा नहीं दी जाती। बेल्जियम, ग्रीस, थाइलैण्ड और तुर्की इस सूची में शामिल हैं। कुछ और देशों ने अपने यहां यह कानून बनाने के बाद उसे वापस भी ले लिया है। नीदरलैण्ड, स्पेन, वेनेज्वेला और चिली इसके उदाहरण हैं।
मतदाता का डर तो खत्म हो
मतदान को अनिवार्य बनाने के पहले बहुत सारे ऎसे चुनावी सुधार हैं, जिनकों लागू कर हम अपने जनतंत्र को अधिक सशक्त, समर्थ और सार्थक बना सकते हैं। चुनावों में कालेधन का असर हो या बाहुबल का कुप्रभाव, इनकी रोकथाम के लिए जो कानून फिलहाल दण्ड संहिता में हैं उनका सख्ती से पालन ही जनतंत्र की जड़ों को मजबूत बना सकता है।
यदि औसत निरीह मतदाता मतदान के लिए घर से नहीं निकलता तो उसके मन में चुनाव के पहले और बाद हिंसा की संभावना या पास-पड़ोस में बैर भाव बढ़ने की आशंका ही जिम्मेदार रहती है। यदि एक बार यह भय मन से निकल जाए तो मतदाता सहर्ष-सह उत्साह मतदान के लिए तत्पर होंगे, ऎसा हमारा मानना है। जब से नौजवान मतदाताओं की संख्या में इजाफा हुआ है, तब से मतदान का प्रतिशत निरंतर बढ़ता जा रहा है। इस विषय में उतावलेपन की नहीं धैर्य की आवश्यकता है। इस घड़ी हमें प्राथमिकता अस्मिता की राजनीति को नहीं बल्कि विकास के मुद्दों को देनी चाहिए, व्यक्तिगत करिश्मे को नहीं विचारधरा से जुड़े मुद्दों को देने की है। अवसरवादी कुनबा परस्तों को तथा असामाजिक तत्वों को एक बार नकारना शुरू करे और फिर देखें कि जनतंत्र की असली जीत कैसे होती है।
मतदाता निभाएं जिम्मेदारी
अनेक विद्वानों का मानना है कि हाल के वर्षो में भारत में बार-बार जिस तरह का खण्डित जनादेश सामने आता रहा है, उसका कारण बहुसंख्यक मतदाता समुदाय का मौन रह जाना और चुनावों का तिरस्कार है। यदि सभी नागरिक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करें तो विजयी उम्मीदवार वास्तव में जनतांत्रिक रूप से बहुमत का प्रतिनिधित्व करने वाला कहा जा सकता है। दूसरी ओर मताधिकार को अनिवार्य बनाने की मांग को जनतंत्र की आत्मा का हनन मानने वालों की भी कमी नहीं। इन लोगों का मानना है कि साम्यवादी राज्यों जैसी एक दलीय अधिनायकवादी राजनीतिक प्रणालियां ही मतदान को अनिवार्य बना असंतुष्ट तत्वों पर निगरानी का प्रयास करती हैं।