All About Sarojini Naidu in Hindi

By | March 3, 2017

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*सरोजिनी नायडू (अंग्रेज़ी: Sarojini Naidu, जन्म- 13 फ़रवरी, 1879, हैदराबाद; मृत्यु- 2 मार्च, 1949, इलाहाबाद) सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं।*

वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।

‘श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।’

ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।

*जीवन परिचय*
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय ‘निज़ाम कॉलेज’ के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों। वह चाहते थे कि सरोजिनी जी बहुत बड़ी वैज्ञानिक बनें। यह बात मनवाने के लिए उनके पिता ने सरोजिनी को एक कमरे में बंद कर दिया। वह रोती रहीं। सरोजिनी के लिए गणित के सवालों में मन लगाने के बजाय एक कविता लेख लिखना ज़्यादा आसान था। सरोजिनी ने महसूस किया कि वह अंग्रेज़ी भाषा में भी आगे बढ़ सकती हैं और पारंगत हो सकती हैं। उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि वह अंग्रेज़ी में आगे बढ़ कर दिखाएगीं। थोड़े ही परिश्रम के फलस्वरूप वह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने लगीं। इस समय लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की ‘झील की रानी’ नामक लंबी कविता औ ने 1300 पदों की ‘झील की रानी’ नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अघोरनाथ सरोजिनी की अंग्रेज़ी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एस. चट्टोपाध्याय कृत ‘पोयम्स’ के नाम से सन् 1903 में एक छोटा-सा कविता संग्रह प्रकाशित किया। डॉ. एम. गोविंद राजलु नायडू से सरोजिनी नायडू का विवाह हुआ। सरोजिनी नायडू ने राजनीति और गृह प्रबंधन में संतुलन रखा।

भाषा

सरोजिनी चट्टोपाध्याय ने अपनी माता वरदा सुंदरी से बंगला सीखी और हैदराबाद के परिवेश से तेलुगु में प्रवीणता प्राप्त की। वे शब्दों की जादूगरनी थीं। शब्दों का रचना संसार उन्हें आकर्षित करता था और उनका मन शब्द जगत में ही रमता था। वे बहुभाषाविद थीं। वह क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेज़ी, हिन्दी, बंगला या गुजराती भाषा में देती थीं। लंदन की सभा में अंग्रेज़ी में बोलकर उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था।

शिक्षा

बारह साल की छोटी सी उम्र में ही सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी और मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद उच्चतर शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैंड भेजा दिया गया जहाँ उन्होंने क्रमश: लंदन के ‘किंग्ज़ कॉलेज’ में और उसके बाद ‘कैम्ब्रिज के गर्टन कॉलेज’ में शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज की शिक्षा में सरोजिनी की विशेष रुचि नहीं थी और इंग्लैंड का ठंडा तापमान भी उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं था। वह स्वदेश लौट आयी

*कविता में उड़ान*

यद्यपि सरोजिनी इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में ‘एडमंड गॉस’ और ‘आर्थर सिमन्स’ भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएँ और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में, उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह ‘बर्ड ऑफ़ टाइम’ और ‘ब्रोकन विंग’ ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं।

प्रथम कविता-संग्रह
सरोजिनी के प्रथम कविता-संग्रह ‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ (1905) में बहुत ही उत्साह के साथ पढ़ा गया। सरोजिनी को एक सक्षम, होनहार और नवोदित कवयित्री के रूप में सम्मानित किया गया। इंग्लैंड के बड़े-बड़े अखबारों ‘लंदन-टाइम्स’ और ‘द मेन्चैस्टर गार्ड्यन’ में इस कविता-संग्रह की प्रशंसा युक्त समीक्षाएँ लिखी गईं। भारत में उन्हें एक नया उदीयमान तेजस्वी तारा माना गया।

‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ के बाद ‘बर्ड ऑफ़ टाइम’ नामक संग्रह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ।
समय के पंछी का उड़ने को सीमित विस्तार
पर लो- पंछी तो यह उड़ चला।।
इसके बाद सन् 1917 में उनका तीसरा कविता-संग्रह ‘द ब्रोकन विंग’ निकला। उसमें उन्होंने गाया-
ऊँची उठती हूँ मैं, कि पहुँचू नियत झरने तक
टूटे ये पंख लिए, मैं चढ़ती हूँ ऊपर तारों तक।

तारों तक पहुँचने के लिए ऊपर उठने की यह भावना सरोजिनी नायडू के साथ सदैव रही। सन् 1946 में दिल्ली में ‘एशियन रिलेशन्स कॉन्फ्रेंस’ को सम्बोधित करते हुए उन्होंने इसी भाव को व्यक्त किया। उन्होंने कहा- ‘हम आगे, और भी आगे, ऊँचे, और ऊँचे जायेंगे, जब तक हम तारों तक न पहुँच जाएँ। आइए, तारों तक पहुँचने के लिए हम लोग बढ़ें।’ उन्होंने कहा– ‘हम चाँद के लिए चिल्लाते नहीं हैं। हम तो उसे आकाश में से तोड़कर ले आएंगे और एशिया की मुक्ति के ताज में उसे लगा कर पहन लेंगे।’ हार कर हताश हो बैठने का उनका स्वभाव नहीं था। अपने निश्चित उद्देश्य तक पहुँचने के लिए वह केवल आगे बढ़ना चाहती थीं। कविताओं और जीवन, दोनों में ही सरोजिनी नायडू यही करती थीं।
लम्बा अंतराल और कविता
सन 1937 में कई वर्षों बाद सरोजिनी नायडू का आख़िरी कविता-संग्रह ‘द सेप्टर्ड फ्लूट’ एक आश्चर्यजनक और गम्भीर रूप में सामने आया। इस समय वह देश की राजनीति में रची बसी थीं और बहुत लम्बे समय से उन्होंने कविता लिखना लगभग छोड़ ही दिया था। राजनीतिक तनावों में यह कविता-संग्रह हवा के ताजे झोंके की एक लहर बनकर सबके सामने आया। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही सरोजिनी नायडू को एक होनहार कवयित्री के रूप में प्रशंसा और प्रसिद्धि मिल चुकी थी, किंतु वह स्वयं अपनी रचनाओं को बहुत ही साधारण मानती थीं। ‘मैं सचमुच कोई कवि नहीं हूँ,’ उन्होंने कहा – ‘मेरे सामने एक दर्शन है, मगर मेरे पास आवाज़ नहीं है।’ उन्होंने स्वयं को केवल ‘गीतों की गायिका’ बताया। किंतु उनके गीत बहुत मधुर थे जो कोमल भावों और प्रेम की भावना से ओतप्रोत थे।

‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ की पंक्तियाँ हैं—
लिए बांसुरी हाथों में हम घूमें गाते-गाते
मनुष्य सब हैं बंधु हमारे, जग सारा अपना है।

सरोजिनी नायडू ने ख़ुद के लिए कुछ भी कहा हो, भारतीय साहित्य में कवयित्री के रूप में उनका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उनके शब्दों में संगीत है। उनकी कविताएँ सुन्दर प्रतीकों से भरी हैं। सच्चे दिल से वह भारत के श्रमिक वर्ग के लिए चिंतित रहा करती थीं। अपनी मातृभूमि को दासता से मुक्त करने का स्वप्न वह सदैव देखती रहीं, उनके मन में समस्त मानव जाति के लिए प्रेम था। उनकी कविताओं ने आधुनिक भारतीय साहित्य पर अपनी विशिष्ट छाप अंकित की है।

*विवाह और उसके बाद*

सरोजिनी नायडू सन् 1898 में इंग्लैंड से लौटीं। उस समय वह डॉ. गोविन्दराजुलु नायडू के साथ विवाह करने के लिए उत्सुक थीं। डा. गोविन्दराजुलु एक फ़ौज़ी डाक्टर थे, जिन्होंने तीन साल पहले सरोजिनी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था। पहले तो सरोजिनी के पिता इस विवाह के विरुद्ध थे किन्तु बाद में यह सम्बन्ध तय कर दिया गया। सरोजिनी नायडू ने हैदराबाद में अपना सुखमय वैवाहिक जीवन का आरम्भ किया। डॉ. नायडू की वह बड़े प्यार से देखभाल करतीं। उन्होंने स्नेह और ममता के साथ अपने चार बच्चों की परवरिश की। उनके हैदराबाद के घर में हमेशा हंसी, प्यार और सुन्दरता का वातावरण छाया रहता था। सरोजिनी नायडू के घर के दरवाज़े सबके लिए खुले रहते थे।

सरोजिनी नायडू (8 अगस्त, 1930)
दूर-दूर से कितने ही दोस्त उस घर में आते रहते थे और सबका वह प्रेम से सत्कार करतीं। वह उन्हें स्वादिष्ट भोजन खिलातीं और ज़िन्दादिली और विनोदप्रियता से उनका मन बहलातीं। वह अपने और परिवार से हमेशा प्यार करती थीं। उन्हें हैदराबाद शहर से बहुत प्यार था जिसकी समृद्ध सभ्यता उनके ख़ून में घुलमिल गई थी। वह उर्दू शायरी की शौक़ीन थीं। हालाँकि आम भाषाओं में वह ज़्यादातर अंग्रेज़ी में भाषण दिया करतीं थीं, उर्दू भाषा के प्रति भी वह बड़ी आकर्षित थीं और काफ़ी अच्छी उर्दू बोल लेती थीं। वह सुखी थीं और संतुष्ट थीं। उस समय की उनकी कविता में उनके मन में उमड़ रहे उल्लास की झलक मिलती है। लेकिन अपने घर की दुनिया में इतनी सुखी होने पर भी वह जो कुछ थीं उसके अधिक कुछ और बनना चाहती थीं। उनकी आँखें अपने सुखमय घर की दीवारों से बाहर कुछ ढूँढ रहीं थीं। गोपाल कृष्ण गोखले उनके अच्छे मित्र थे। वह भारत को अंग्रेज़ी हुक़ूमत से आज़ाद करने के काम में लगे हुए थे। उन्होंने सरोजिनी नायडू को अपने घर के एकान्त से बाहर निकल कर, अपने जीवन और गीतों को राष्

*कांग्रेस अध्यक्*

कुछ ही समय में सरोजिनी नायडू एक राष्ट्रीय नेता बन गईं। वह ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के प्रतिष्ठित नेताओं में से एक मानी जाने लगीं। सन् 1925 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्ष चुनी गईं। तब तक वह गांधी जी के साथ दस वर्ष तक काम कर चुकी थीं और गहरा राजनीतिक अनुभव पा चुकी थीं। आज़ादी के पूर्व, भारत में कांग्रेस का अध्यक्ष होना बहुत बड़ा राष्ट्रीय सम्मान था और वह जब एक महिला को दिया गया तो उसका महत्त्व और भी बढ़ गया। गांधी जी ने सरोजिनी नायडू का कांग्रेस प्रमुख के रूप में बड़े ही उत्साह भरे शब्दों में स्वागत किया, ‘पहली बार एक भारतीय महिला को देश की यह सबसे बड़ी सौगात पाने का सम्मान मिलेगा। अपने अधिकार के कारण ही यह सम्मान उन्हें प्राप्त होगा।’
सरोजिनी ने स्वयं अपने बारे में कहा-

‘अपने विशिष्ट सेवकों में मुझे मुख्य स्थान के लिए चुनकर आप लोगों ने कोई नई मिसाल नहीं रखी है। आप तो केवल पुरानी परम्परा की ओर ही लौटे हैं और भारतीय नारी को फिर से उसके उस पुरातन स्थान में ला खड़ा किया है जहाँ वह कभी थी…..।’
अपने अध्यक्षीय भाषण में सरोजिनी नायडू ने भारत के सामाजिक, आर्थिक औद्योगिक और बौद्धिक विकास की आवश्यकता की बात की। प्रभावशाली शब्दों में उन्होंने भारत की जनता को अपने देश की स्वाधीनता के लिए हिम्मत और एकता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, ‘स्वाधीनता संग्राम में भय एक अक्षम्य विश्वासघात है और निराशा एक अक्षम्य पाप है।’ उनका यह भी मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही है। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। पितृसत्ता के समर्थकों को भी नारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने के लिये प्रोत्साहित किया। भार��

*सरोजिनी नायडू ‘नारी मुक्ति* आंदोलन’ को भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक हिस्सा ही समझती थीं। वह अपने शब्दों की पूर्ण शक्ति के साथ पुरुष और स्त्रियों, दोनों के बीच जाकर नारी शिक्षा की आवश्यकताओं पर ज़ोर देती थीं।
1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन में सरोजिनी नायडू ने अधिवेशन की अध्यक्षता की।
‘गोलमेज कांफ्रेंस’ में महात्मा गांधी के प्रतिनिधि मंडल में सरोजिनी नायडू भी सम्मिलित थीं।
रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए सरोजिनी नायडू ने महिलाओं को संगठित किया।
जब 1932 में महात्मा गांधी जेल गये थे, उस समय आंदोलन को रफ्तार देने और बढ़ाने का दायित्व सरोजिनी नायडू को सौंप कर गये थे। गांधी जी ने कहा था- ‘तुम्हारे हाथों में भारत की एकता का काम सौंपता हूं।’ भारत का पक्ष रखने के लिए महात्मा गांधी ने उन्हें अमेरिका भेजा था।
सरोजिनी नायडू ने महिलाओं का नेतृत्व करते समय नारी समाज की उन्नति के अथक प्रयास किये।
भारत के स्वतंत्र होने पर उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया।

*साहस की प्रतीक*

सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। पंजाब में सन् 1919 में जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर जनरल डायर के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी रॉलेट एक्ट के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी ‘नाइट हुड’ की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना ‘कैसर-ए-हिन्द’ का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। अहमदाबाद में गांधी जी के साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं।

*राज्यपाल*

स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया। वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत था। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं अपने को ‘क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी’ की तरह अनुभव कर रही हूँ।’ लेकिन वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को टाल न सकीं जिनके प्रति उनके मन में गहन प्रेम व स्नेह था। इसलिए वह लखनऊ में जाकर बस गईं और वहाँ सौजन्य और गौरवपूर्ण व्यवहार के द्वारा अपने राजनीतिक कर्तव्यों को निभाया।
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